Tuesday, November 14, 2017

धरती के स्वर्ग का अस्तित्व खतरे में


ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया के हर हिस्से को प्रभावित किया है. हमारा देश भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है.  धरती पर स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर भी इसकी जद में आ गया है. कश्मीर घाटी में मौजूद अल्पाइन के जंगल खत्म होने के कगार पर हैं जिसकी वजह से क्षोभ मंडल भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. इसका सीधा असर घाटी में स्थित छोटी बड़ी सभी प्रकार की नदियों और झीलों पर पड़ रहा है. श्रीनगर में ६० छोटी-बड़ी जल धाराएं हैं. यह भी धीरे-धीरे ख़त्म रहीं हैं. वुल्हर झील भारत में मीठे पानी की सबसे बड़ी झील है. लेकिन इसकी स्थिति भी बिगड़ गयी है. झील के ८० प्रतिशत छेत्र पर कब्ज़ा हो चुका है. वहीँ, ढल झील भी बीमार है. उसे भी जलवायु परिवर्तन ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. हमें अगर अपना अस्तित्व बचाना है तो इन जल धाराओं को बचाना ही पड़ेगा.२०१४ में घाटी में आयी बाढ़ ने बहुत कुछ तबाह कर दिया. जितना बच गया वह हमारी झीलों की वजह से. अगर वुल्हर झील नहीं होती तो आज वहां  कुछ नहीं होता. वुलर झील मौसम के अनुसार अपने छेत्रफल में बदलाव करती रहती है. यह ३० वर्ग किलोमीटर से २६० किलोमीटर तक अपने आकार को बदल लेती है. इसलिए अभी भी समय है सचेत हो जाएँ, हमें अपना जीवन बचाने के लिए जल धाराओं को बचाना ही होगा.
पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ जाने से इस इलाके की जलवायु में भी बदलाव देखा जा रहा है. पिछले कुछ सालों से बर्फ गिरने के समय में परिवर्तन देखने को मिल रहा है. आज से करीब २५ साल पहले बर्फ अक्टूबर से मार्च तक गिरती थी और इसका घनत्व दो से चार फ़ीट तक हुआ करता था, लेकिन अब ऐसा देखने को नहीं मिलता. 2017 में अप्रैल माह में बर्फ गिरी और पिछले कुछ समय से ऐसा ही हो रहा है इससे घाटी में फसलों की बोवाई पर भी गहरा असर पड़ा है. यहां की मशहूर पैदावार केसर, पीच और चेरी की फसल को बहुत नुक्सान हो रहा है. घाटी के पम्पोर इलाके में दुनिया की उत्तम किस्म की केसर उगाई जाती है, माना जाता है कि यहाँ की केसर में  ७० प्रतिशत लेनिलोल पाया जाता है, वहीँ दूसरे देशों  की केसर में यह 50 प्रतिशत ही होता है. यही वजह है कि यहाँ की केसर को सर्वोत्तम माना जाता है. लेकिन इस जलवायु परिवर्तन की वजह से केसर की उपज भी आधी रह गयी है. एक समय केसर का किसान तीन से चार किलो केसर उगा लेता था और उसे एक किलो पर दो से तीन लाख रूपए मिल जाया करते थे, लेकिन अब उन्हें इसकी आधी कीमत पर ही संतुष्ट होना पड़ रहा है क्योंकि उपज ही आधी रह गयी है. यही हाल चेरी, पीच और सेब का भी है, इनमें जब फूल निकलता है तो बर्फ गिर जाती है और फसल को खराब कर देती है. पिछले पांच-सात साल से यही हो है. अब तो हालात यह हो गए हैं कि एक  समय इन किस्म की उपज की खेती से लाखों कमाने वाला किसान नरेगा योजना से अपना जीवन यापन करने को मजबूर है. ऐसी नौबत आने की वजह भी है. केसर एक ऐसा पौधा है जो कृतिम सिंचाई से नहीं उग सकता. मतलब उगने के लिए उसे सिर्फ बारिश की सींचाई ही चाहिए. पिछले आठ-नौ साल से समय पर बारिश ही नहीं हो रही है, जिस वजह से इसकी उपज कम होती जा रही है.
यह हमें समझना होगा कि फसलें खत्म होने की वजह से घाटी की अर्थव्यवस्था भी ख़त्म हो जाएगी क्योंकि यहाँ की करीब ९५ प्रतिशत आबादी जल धाराओं से सम्बद्ध काम पर ही निर्भर है. जल धाराओं के ख़त्म होने के साथ ही ग्लेशियर्स का तेजी से पिघलना भी खतरे की ओर संकेत है. २०१४ में बाढ़ ने तबाही मचाई, २०१५  में बहुत ज्यादा बारिश हुई और २०१६ में बिलकुल बारिश नहीं हुई. इन्ही कारणों की वजह से घाटी में समय रहते कदम उठाने की ज़रूरत है. नहीं तो हम इस धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को सिर्फ किताबों में ही पढ़ेंगे.

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